अरसा बाद किसी फिल्म को देखकर एक उम्दा रचना पढ़ने सरीखा अहसास हुआ। किरण राव के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद उसके फिल्म के अवबोध
(परसेप्शन) और साहित्यिक संजीदगी (लिटररी सेन्स) का कायल हो गया। मुझे यह एक 'सबटेक्स्चुअल' फिल्म लगी जहाँ उसके 'सबटेक्सट' को उसके 'टेक्सट्स' से कमतर करके
देखना एक भारी भूल साबित हो सकती है। मसलन फिल्म का शीर्षक 'धोबी घाट' की तुलना में उसका सबटाइटल 'मुंबई डायरीज' ज्यादा मानीखेज है। सनद रहे, डायरी नहीं डायरीज।
डायरीज में जो बहुवचनात्मकता (प्लूरॉलिटी) है वह अपने लिए एक लोकतांत्रिक छूट भी हासिल कर लेता है। किसी एक के अनुभव से नहीं बल्कि 'कई निगाहों से बनी एक
तस्वीर'। फिल्म के कैनवॉस को पूरा करने में हाशिए पर पड़ी चीजें भी उतना ही अहम रोल अदा करती हैं जितने कि वे किरदार जो केंद्र में हैं। यों तो सतह पर हमें चार
ही पात्र नजर आते हैं लेकिन असल में हैं ज्यादा - टैक्सी ड्राइवर, खामोश पड़ोसन, लता बाई, प्रापर्टी ब्रोकर, सलीम, लिफ्ट गार्ड और सलमान खान (चौंकिए मत, सलमान
खान की भी दमदार उपस्थिति इस फिल्म में है।) - सब मिलकर उस सिंफनी को रचते हैं जिससे मुंबई का और हमारे समय का भी एक अक्स उभरता है।
जैसे की फिल्म की ओपनिंग सीन जहाँ यास्मीन नूर (कीर्ति मल्होत्रा) टैक्सी में बैठी मरीन ड्राइव से गुजर रही है। टैक्सी के सामने लगी ग्लास पर गिरती बारिश को
हटाते वाइपर, चलती टैक्सी और बाहर पीछे छूटते मरीन ड्राइव के किनारे और इनकी मिली-जुली आवाजों के बीच टैक्सी ड्राइवर का यह पूछना कि 'नई आई हैं मुंबई में?'
ड्राइवर कैसे ऐसा पूछने का साहस कर सका? क्योंकि उसकी सवारी (यास्मीन) के हाथ में एक हैंडी कैम है जिससे वह मुंबई को सहेज रही है। जिससे वह अनुमान लगाता है कि
शायद यह मुंबई में नई आई है (आगे मुंबई लोकल में शूट करते हुए भी उसे दो महिलाएँ टोकती हैं 'मुंबई में नई आई हो?')। फिर उनकी आपसी बात-चीत के क्रम में ही यह
मालूम होता है कि वह मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) की रहनेवाली है और ड्राइवर जौनपुर (उत्तर प्रदेश) का। उसी शुरुआती दृश्य में टैक्सी के अंदर डैश बोर्ड में बने
बॉक्स पर लगे एक स्टिकर पर भी हैंडी कैम पल भर को ठिठकता है जिसमें एक औरत इंतजार कर रही है और उसकी पृष्ठभूमि में एक कार सड़क पर दौड़ रही है, और स्टिकर के नीचे
लिखा है : 'घर कब आओगे?' यह उस ड्राइवर की कहानी बयाँ करने के लिए काफी है कि वह अपने बीवी-बच्चों को छोड़कर कमाने के लिए मुंबई आया है। इसके बाद भीगती बारिश में
भागती कार से झाँकती आँखें मुंबई की मरीन ड्राइव को देखते हुए जो बयाँ करती हैं वह खासा काव्यात्मक है। '...समंदर की हवा कितनी अलग है, लगता है इसमें लोगों के
अरमानों की महक मिली हुई है।' 2 मिनट 10 सेकेंड के इस ओपनिंग सीन के बाद कायदे से फिल्म शुरू होती है उन चार शाट्स से जिनमें पहला, किसी निर्माणाधीन इमारत की छत
पर भोर में जागते मजदूर का दूसरा, उसके समानांतर भोर की नींद में डूबी मुंबई का तीसरा, संभवतः उसी इमारत में निर्माण कार्य में लगे मजदूरों के सीढ़ियों में
चढ़ने-उतरने का और चौथा, दोपहर में खुले आसमान के नीचे बीड़ी के कश लगाते सुस्ताते मजदूर का। फिल्म के यह शुरुआती चार शाट्स फिल्म के एक दम आखिरी में आए चार शाट्स
के साथ जुड़ते हैं। उन आखिरी चार शाट्स में पहला, दोपहर की भीड़ वाली मुंबई है। दूसरा, शाम को धीरे-धीरे रेंगती मुंबई और ऊपर बादलों की झाँकती टुकड़ियाँ हैं।
तीसरा, रात को लैंप पोस्ट की रोशनी में गुजरनेवाली गाड़ियों का कारवाँ है और चौथा, देर रात में या भोर के ठीक पहले नींद में अलसाई मुंबई का शॉट है। इस तरह फिल्म
ठीक उसी शॉट् पर खत्म होती है जहाँ फिल्म कायदे से शुरू हुई थी। एक चक्र पूरा होता है। लेकिन यह शॉट्स भी मुंबई के दो चेहरों को सामने रखते हैं। 'अ टेल ऑव टू
सिटीज'। जब एक (सर्वहारा) जाग रहा होता है तो दूसरा (अभिजन) गहरी नींद में होता है और पहला जब सोने की तैयारी कर रहा होता है तो दूसरे के लिए दिन शुरू हो रहा
होता है (सलीम जब सोने की तैयारी कर रहा होता है, ठीक उसी वक्त अरुण के चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन हो रहा होता है)।
मुन्ना (प्रतीक बब्बर) यों तो पहली दुनिया का नागरिक है लेकिन उसके मन में उसी दूसरी दुनिया का नागरिक होने की चाह है, इस कारण वह अपनी नींद बेचकर सपना पूरा
करने में लगा है। अरुण (आमिर खान) दूसरी दुनिया का नागरिक है और शॉय (मोनिका डोगरा) एक तीसरी दुनिया की, जो लगातार यह भ्रम पैदा करती है कि वह दूसरी दुनिया की
नागरिक है। मतलब यह कि शॉय इन्वेस्टमेंट बैंकिंग कन्सल्टेंट है दक्षिण एशियाई देशों में निवेश के रुझानों पर विशेषकर लघु और छोटी पूँजी पर आधारित पारंपरिक
व्यवसायों की फील्ड सर्वे करके रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजी गई है। फिल्म के अंत की ओर बढ़ते हुए अचानक सिनेमा के पर्दे पर उभरने वाले उन पंद्रह तस्वीरों की
लड़ियों को याद कीजिए जिसमें डेली मार्केट जैसी जगह के स्टिल्स हैं, उन तस्वीरों में कौन लोग हैं इत्र बेचनेवाला, पौधे बेचनेवाला, जूते गाँठनेवाला, मसक में पानी
ढोनेवाला, रेलवे प्लेटफार्म पर चना-मूँगफली बेचनेवाला, गजरे का फूल बेचनेवाली, घरों में सजाए जा सकनेवाले फूलों को बेचनेवाली, कान का मैल निकालनेवाला, चाकू तेज
करनेवाला, मजदूर, पान बेचनेवाली, ताला की चाभी बनानेवाला, रेहड़ी और ठेला पर सामान खींचनेवाला, मछली बेचनेवाली आदि। इस काम के लिए उसे अनुदान मिला है और अनुदान
देनेवाली संस्था का मुख्यालय न्यूयार्क (अमेरिका) में है। मैक्डॉनाल्ड के लगातार खुलते आउटलेट, अलग-अलग ब्रांड के उत्पादों का भारत की ओर रुख करने और हर
पर्व-त्यौहार में भारतीय बाजार में चीन की आतंककारी उपस्थिति को देखते हुए, वायभ्रेंट गुजरात की अभूतपूर्व सफलता के मूल मे अनिवासी भारतीयों की भूमिका, भारतीय
सरकार द्वारा उनको दी जाने वाली दोहरी नागरिकता, भारतीय इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया द्वारा उनके विश्व के ताकतवर लोगों में शुमार किए जाने की खबरों को तरजीह
दिए जाने वाले परिवेश में शॉय एक कैरेक्टर मात्र न रह कर 'मेटाफर' बन जाती है। मुन्ना को अगर 'प्रोलेतेरियत' और अरुण को 'बुर्जुआ' मान लें जिसके फिल्म में
पर्याप्त कारण मौजूद हैं। (बुर्जुआ अपने ऐतिहासिक संदर्भ में पूँजीपति का पर्याय न होकर उस उभरते मध्य वर्ग का पर्याय था जिसके साथ मिल कर सर्वहारा ने नए समाज
के निर्माण का सपना देखा था और लक्ष्य हासिल करते ही जिसने अपने साझीदार को भुला दिया था)। तो शॉय 'फिनांस कैपिटल' की तरह बिहेव करती नजर आती है। खास कर तब जब
वह अरुण से लगातार यह बात छिपा रही होती है कि वह मुन्ना को जानती है। मुन्ना और अरुण दोनों तक, जब चाहे पहुँच सकने की छूट शॉय को ही है। शॉय का कला प्रेम लगभग
वैसा ही है जैसा सैमसंग का साहित्य प्रेम गत वर्ष हम देख चुके हैं। सभ्यता के विकास का इतिहास पूँजी के विकास का भी इतिहास है। और ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास
होता गया त्यों-त्यों मानवीय गुणों में हृास भी देखा गया। इस लिहाज से भी विकास के सबसे निचले पायदान पर खड़ा मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में ज्यादा मानवीय
लगता है। आखिरी दृश्य में जब वह सड़कों पर बेतहाशा दौड़ता हुआ शॉय को अरुण का पता थमाता है, तब वह खुद इस बात की तस्दीक कर रहा होता है कि कुछ देर पहले वह झूठ बोल
रहा था। शॉय भी कई जगहों पर झूठ बोलती है, बहाने बनाती है लेकिन न तो पकड़ में आती है और न ही अपराधबोध से ग्रसित नजर आती है।
साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक आक्रमण की प्रक्रिया को 'धोबी घाट' बेहद बारीकी से उभारती है। और यह महीनी सिर्फ इसी प्रसंग तक सिमट कर नहीं रह गई है। एक चित्रकार
के तौर पर अरुण का अपनी कला के संबंध में व्यक्त उद्गार ध्यान देने लायक है। 'मेरी कला समर्पित है, राजस्थान, यूपी, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और अन्य जगहों के उन
लोगों का जिन्होंने इस शहर को इस उम्मीद से बनाया था कि एक दिन उन्हें इस शहर में उनकी आधिकारिक जगह (राइटफुल प्लेस) मिल जाएगी। मेरी कला समर्पित है उस बांबे
को।' अरुण यहाँ मुंबई नहीं कहता है 'बांबे' कहता है। अगर पूरे संदर्भ में आप 'बांबे' संबोधन को देखें तो आप किरण की सिनेमाई चेतना की तारिफ किए बिना नहीं रह
सकेंगे। हाल के दिनों में शायद ही किसी फिल्मकार ने शिव सेना की राजनीति का ऐसा मुखर प्रतिरोध करने की हिम्मत और हिमाकत दिखलाई है।
मुन्ना, अरुण और शॉय की तुलना में यास्मीन नूर सहजता से किसी खाँचे में नहीं आती। कहीं यह मुन्ना के करीब लगती है तो कहीं अरुण और शॉय के। मुन्ना और यास्मीन इस
मामले में समान है कि दोनों अल्पसंख्यक वर्ग से तालुक रखते हैं, दोनों हिंदी भाषी प्रदेश क्रमशः (मलीहाबाद) उत्तर प्रदेश और दरभंगा (बिहार) से हैं, दोनों रोजगार
के सिलसिले में मुंबई आते हैं (यास्मीन निकाह कर के अपने शौहर के साथ मुंबई आई है। निम्न वर्ग या निम्न वित्तीय अवस्था वाले परिवारों में लड़कियों के लिए विवाह
भी एक कैरियर ही है।) इसके अलावा मुन्ना और शॉय के साथ मुंबई में एक आउटसाइडर की हैसियत से साथ खड़ी नजर आती है। उसकी संवेदनशीलता उसे अरुण के साथ जोड़ती है। इन
सबको जो चीज आपस में जोड़ती है, वह है मुंबई, जिसकी बारिश और समंदर ये आपस में साझा करते हैं। आप पाएँगे कि इन सबके जीवन में समंदर और बारिश के संस्मरण मौजूद
हैं। यह उनके एक साझे परिवेश से व्यक्तिगत जुड़ाव को दर्शाता है। यास्मीन के नक्शे कदम पर अरुण समंदर के पास जाता है। मुन्ना और शॉय साथ-साथ समंदर के किनारे वक्त
बिताते हैं। लेकिन यास्मीन, बारिश और समंदर जब भी पर्दे पर आते हैं फिल्म में हम कविता को आकार ग्रहण करते देखने लगते हैं। जैसे - 'यहाँ की बारिश बिल्कुल अलग
है, न कभी कम होती है, न कभी रुकने का नाम लेती है, बस गिरती रहती है, शश्श्श्..., रात को इसकी आवाज जैसे लोरी हो, जो हमें घेर लेती है अपने सीने में।' या फिर
'यहाँ कुछ नहीं टिक सकता, और यह समुंदर सब कुछ लेकर चुप रहता है। मैं इसे कुछ भी कह सकती हूँ, अपने सारे राज बता सकती हूँ और वह सब समुंदर की गहराई में खो
जाएँगे। वह किसी को नहीं बताएगा।' बारिश के समय अरुण अपनी पेंटिग में लीन हो जाता है तो शॉय अरुण के साथ बिताए गए अपने अंतरंगता के क्षणों में, लेकिन इन सब की
रोमानियत पर मुन्ना का यथार्थ पानी फेर देता है क्योंकि बारिश के वक्त मुन्ना अपनी चूती छत ठीक कर रहा होता है। इन तमाम समानताओं के बावजूद मुझे यास्मीन मुन्ना
के ही नजदीक लगी। वह मारी गई अपनी अतिरिक्त संवेदनशीलता के कारण, पूरी फिल्म उसकी इस अतिरिक्त संवेदनशीलता का साक्षी है चाहे वह दाई का प्रसंग हो या किसी सदमे
के कारण खामोश हो चुकी पड़ोसन का (संभवतः 2006 के मुंबई बंब ब्लास्ट में वह अपने किसी आत्मीय को गँवा बैठी है, यह सिर्फ अनुमान है।) या फिर बकरीद के अवसर पर उसके
उद्गार। एक लगातार संवेदनशून्य होते समय में संवेदनशीलता को कैसे बचाया जा सकता है। जो बचे रह गए उनकी संवेदनशीलता उतनी शुद्ध या निखालिस नहीं थी। शायद इसलिए
यास्मीन की मौत मेरे जेहन में एक कविता के असमय अंत का बिंब नक्श कर गई। वैसे यहाँ 'आप्रेस्ड क्लास' के साथ 'जेंडर' वाला आयाम भी आ जुड़ता है। एक समान
परिस्थितियों में भी पितृसत्तात्मक समाज किस कदर पुरुष की तुलना में स्त्री विरोधी साबित होता है। यास्मीन का प्रसंग इस लिए भी दिलचस्प है कि खुद आमिर खान ने
अपनी पहली पत्नी को छोड़ने के बाद किरण को अपनी शरीक-ए-हयात बनाया था। फिल्म में इस ऐंगल को शामिल किए जाने मात्र से भी किरण की बोल्डनेस का अंदाजा लगाया जा सकता
है। इस कोण से ही फिल्म का दूसरा सिरा खुलता है जो यास्मीन की उपस्थिति और उसके साँचे में फिट न बैठ सकने की गुत्थी का हल प्रस्तुत करता है। यहीं मुन्ना यास्मीन
का विस्तार (एक्सटेंशन) नजर आता है। यास्मीन सिर्फ इस कारण से नहीं मरी कि वह अतिरिक्त संवेदनशील थी बल्कि वह इसलिए मरी कि उसमें आत्मविश्वास और निर्णय लेने की
क्षमता की कमी थी। मुन्ना भी लगभग उन्हीं स्थितियों में पहुँच जाता है जिन परिस्थितियों में यास्मीन ने आत्महत्या की है, (सलीम की हत्या हो चुकी है, शॉय को उसके
चूहा मारने के धंधे बारे में मालूम हो गया है, जिस इलाके में वह काम करता था वहाँ से उठा कर जोगेश्वरी के एक अपार्टमेंट में फेंक दिया गया है।)। शुरू में मुन्ना
भी उन परिस्थितियों से मुँह चुराकर भागता है। लेकिन फिर सामना करता है। यह जान कर की शॉय अरुण को ढूँढ़ रही है वह खुद उसको अरुण का पता देता है। आप पाएँगे कि
लगभग पिछले मौकों पर मुन्ना आत्मविश्वास और निर्णय लेने की क्षमता का परिचय देता रहा है। जैसे वह शॉय के कपड़े पर नील पड़ जाने के कारण उसके नाराजगी को ज्यादा
फैलने का मौका दिए बगैर कहता है 'मैडम गलती हो गई दीजिए मैं ठीक करके देता हूँ।' जब शॉय मुफ्त में उसका पोर्टफोलियो अपने ढंग से बाहर नेचुरल तरीके से शूट करना
चाहती है तो वह कहता है कि 'भाई हमें नहीं चाहिए फ्रेश-व्रेश, आप स्टूडियो में शूट कीजिए ना, खर्चा मैं भरता हूँ।' फिर भी ना-नुकुर की स्थिति बनता देख वह सीधा
कहता है कि 'आपको मॉडल्स की फोटो चाहिए कि नहीं?' भाई, धंधा और मोहब्बत को गँवा कर भी फिल्म के अंत में 'द लास्ट स्माइल' की स्थिति में मुन्ना ही है, जो उम्मीद
बँधाता है।
इसके अलावे पूरी फिल्म की बुनावट में जो बारीकी है वह 'स्क्रिप्ट' और 'स्क्रीन प्ले' में की गई मेहनत को दर्शाता है। जैसे फिल्म के शुरुआती दृश्य में जब यास्मीन
खुद को मलीहाबाद की बताती है तो उसकी अहमियत तिहाई फिल्म खत्म होने के बाद मालूम होती है जब वह इमरान को संबोधित करते हुए अपनी तीसरी चिट्ठी मे यह कहती है कि
'वहाँ तो आम आ गए होंगे ना, यहाँ के आमों में वह स्वाद कहाँ?' मुन्ना की खोली में उसके इर्द-गिर्द रहनेवाली बिल्ली की नोटिस हम तब तक नहीं लेते हैं जब तक मुन्ना
अपनी खोली नहीं बदलता। दूसरी बार जब मुन्ना शॉय की नील लगी शर्ट को ठीक करके वापस करने के लिए शॉय के फ्लैट पर जाता है तो शॉय मुन्ना को चाय के लिए भीतर बुलाती
है उस वक्त दरवाजे के किनारे खड़ी एग्नेस (नौकरानी) फ्रेम में आती है। उसके फ्रेम में आने का मतलब ठीक अगले ही सीन में समझ आ जाता है, जब एग्नेस चाय लेकर आती है,
एक कप में और दूसरी ग्लास में। आप पाएँगे कि बेहद पहले अवसर पर ही मुन्ना को शॉय के द्वारा मिलने वाले अतिरिक्त भाव को भाँपने में वह पल भर की देरी नहीं करती और
आगे चलकर इस बारे में अपनी राय भी जाहिर करती है। मुन्ना के बिस्तर के पास लगे सलमान खान के पोस्टर की अहमियत का भान हमें फिल्म के आगे बढ़ने के साथ होता चलता
है। मुन्ना की कलाइयों में बँधी मोटी चेन, डंबल से मसल्स बनाते वक्त सामने आईने पर सलमान की फोटो को हम नजरअंदाज कर जाते हैं। लेकिन फिल्म में और चार मौकों पर
हम सलमान खान की उपस्थिति को नजरअंदाज करते हैं। पहला, जब मुन्ना फिल्म में पहली बार पर्दे पर आता है उस समय वह केबिल में एक फिल्म देख कर हँस रहा होता है।
दूसरा, शॉय मुन्ना से दूसरी बार किसी पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में संयोगवश मिलती है। तीसरा, जब वह मुन्ना का पोर्टफोलियो शूट कर रही होती है और चौथा, जब वह अरुण
के साथ खुद को देख लिए जाने पर उससे विदा लेकर दौड़ती हुई मुन्ना के पास पहुँच कर कहती है कि आज तुम मुझे नागपाड़ा ले जाने वाले थे और फिल्म दिखाने वाले थे। फिल्म
में सलमान खान की जबर्दस्त उपस्थिति को हम नजरअंदाज कर जाते हैं। पहले मौके पर मुन्ना जिस फिल्म को देख कर अपनी खोली में हँस रहा है वह फिल्म है 'हैलो ब्रदर'।
जब पीवीआर या मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने के क्रम में शॉय मुन्ना से मिलती है वह फिल्म है 'युवराज'। मुन्ना अपने पोर्टफोलियो शूट के लिए जो पोज दे रहा होता है
अगर सलमान खान के बिकने वाले सस्ते पोस्टकार्ड और पोस्टर को आपने देखा हो तो आप समझ सकते हैं कि मुन्ना उससे कितना मुतास्सिर है और जिस फिल्म को दिखाने की बात
की थी मुन्ना ने वह फिल्म थी, 'हैलो'। 'युवराज' और 'हैलो' दोनों फिल्में सलमान खान की है। इन कारणों से बाद में खोली बदलते वक्त मुन्ना द्वारा सावधानी से सलमान
खान के पोस्टरों को उतारा जाना एक बेहद जरुरी दृश्य लगता है। लेकिन सिर्फ इस कारण से मैं सलमान खान की उपस्थिति को जबर्दस्त नहीं कह रहा हूँ। इन संदर्भों से
जुड़े होने के बावजूद वैसा कहने की वजह दूसरी है। वह यह कि किसी भी फिल्म में यथार्थ के दो बुनियादी आयाम : काल और स्थान (टाईम एंड स्पेस) को सहजता से पहचान जा
सकता है। आम तौर पर हिंदी सिनेमाई इतिहास में इस किस्म के प्रयोग कम ही देखने को मिले हैं जिसमें शहर को ही मुख्य किरदार के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया हो। जाहिर
है जब आप शहर को प्रोजेक्ट कर रहे होते हैं तो रियलिटी का स्पेस वाला डाइमेंशन टाईम वाले फैक्टर की तुलना में ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो उठता है। 'धोबी घाट' में भी
ठीक यही हुआ है। आप मुंबई को देख रहे हैं लेकिन वह कब की मुंबई है? कहें कि आज की तो मैं कहूँगा कि वह अक्टूबर-नवंबर 2008 के आगे-पीछे की मुंबई है, इतना
स्पेस्फिक कैसे हुआ जा सकता है, इसके संकेत फिल्म में है। 'धोबी घाट' उस अंतराल की कहानी कहता है जब सलमान खान की 'युवराज' रिलीज हो चुकी थी और 'हैलो' सिनेमा
हॉल में चल रही थी। सलमान खान मुंबई के उस स्पेस के टाईम फ्रेम को रिप्रेजेंट करता है। बस इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं थी। लेकिन इसके लिए जिस ढंग से सलमान खान
का मल्टीपर्पस यूस किया गया है, वह किसी मामूली काबिलियत वाले निर्देशक के बूते की बात नहीं है। शहर को किरदार बनाने की दूसरी कठिनाई यह है कि स्टोरी नरेशन का
ग्राफ या स्ट्रक्चर लीनियर नहीं हो सकता उसे जिगजैग या सर्कुलर होना पड़ेगा। किस्सागोई का यह सर्कुलर स्ट्रक्चर सुनने में जितना आसान है उसे फिल्माना उतना ही
मुश्किल है। खासकर भारतीय दर्शक वर्ग जो लीनियर स्ट्रक्चर वाली फिल्मों का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि वह उनके सिनेमाई संस्कार का पर्याय हो गया है। एक और
सिनेमाई संस्कार इस फिल्म को परसीव किए जाने में आड़े आता है वह है भारतीय दर्शक वर्ग का 'डेस्टिीनेशन फिल्मों' का अभ्यस्त हो जाना वैसी स्थिति में धोबी घाट
सरीखी 'जर्नी फिल्में' एक बार में दर्शकों के मर्म को छू नहीं पाती हैं। फिल्म में सांकेतिकता (सजेस्टीविटी) का जिस कदर इस्तेमाल किरण राव ने किया है। उसे देखते
हुए सिर्फ यही कहने को जी चाहता है कि हमारी (भारतीय दर्शक वर्ग) फिल्मों को समझ सकने की काबिलियत पर इतना भरोसा आज तक किसी ने नहीं जताया था। एक तरह से यह
फिल्म भारतीय दर्शकों के परिपक्व होने की सूचना भी देता है। किरण राव ने हिंदी सिनेमा के दर्शकों की समझ को जो इतना सम्मान दिया है उसके लिए शुक्रिया बहुत छोटा
शब्द जान पड़ता है।
हिंदी सिनेमाई इतिहास में जब से मैंने फिल्में देखनी शुरू की है, किरण राव का यह प्रयास कई मायने में मुझे फणीश्वरनाथ 'रेणु' की याद दिला गया। जिस तरह रेणु ने
अंचल को नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्य की परती पड़ी जमीन को तोड़ने का काम किया था, किरण ने भी लगभग वैसा ही किया है। इतना ही नहीं रेणु ने अपनी कहानियों को
'ठुमरीधर्मा' कहा था। संगीत का मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं है लेकिन इतना सुना है कि ठुमरी में कोई एक केंद्रीय भाव या टेक होती है और बार-बार गाने के क्रम में वहाँ
आकर सुस्ताते हैं, स्वरों के तमाम आरोह-अवरोह के बाद उस बुनियादी टेक को नहीं छोड़ते हैं, जिसे उसकी आत्मा कह सकते हैं। ऐसा करते हुए हम उस अनुभूति को ज्यादा
घनीभूत कर रहे होते हैं जो प्रभाव को गाढ़ा करने का काम करता है। इस आवर्तन के जरिए आप उसके केंद्र या नाभिक को ज्यादा संगत तौर पर उभार पाते हैं। रेणु ने इस
शिल्प के जरिए अपनी कहानियों में अंचल की केंद्रीयता को उभारने में सफलता पाई थी। लगभग वैसा ही शिल्प किरण ने अपनी इस फिल्म के लिए अख्तियार किया है। और यह भी
एक दिलचस्प संयोग है कि फिल्म में संभवतः बेगम अख्तर द्वारा गाई गई दो ठुमरी भी बैकग्राउंड स्कोर के तौर पर मौजूद है। एक जब अरुण यास्मीन वाले घर में अपने
सामानों को तरतीब दे रहा है और दूसरा जब मुन्ना बारिश में भीग कर शॉय को बाय कर रहा होता है और अरुण अपनी पैग में बारिश के चूते पानी को मिला कर पेंटिंग शुरू कर
रहा होता है।
भारत के किसी एक शहर या अंचल को फिल्माना खासा चुनौतीपूर्ण है। उसमें भी मुंबई जो लगभग एक जीता-जागता मिथ है। मुंबई के नाम से ही जो बातें तत्काल जेहन में आती
हैं उनमें मायानगरी, मुंबई की लोकल, स्लम्स, गणपति बप्पा, जुहू चौपाटी, पाव-भाजी, भेल-पुरी, अंडरवर्ल्ड, शिवसेना आदि तत्काल दिमाग में कौंध जाते हैं। इस सबसे
मिलकर मुंबई का मिथ बना है। फिल्म में यह सब हैं जो मुंबई के इस मिथ को पुष्ट करता है। तो फिर नया क्या है? नया इस मिथ को पुष्ट करते हुए उसकी आत्मा को बयाँ
करना है। मुंबई के इस मिथ या कहें कि स्टीरियोटाईप छवि को किरण निजी अनुभवों (पर्सनल एक्सपिरयेंसेज) के जरिए जाँचती है। अंत में मुन्ना की मुस्कान उस मुंबइया
स्प्रिट की छाप छोड़ जाती है जिसको हम 'शो मस्ट गो ऑन' के मुहावरे के तौर पर सुनते आए हैं।
अभिनय की दृष्टि से आमिर को छोड़कर सब बेहतरीन हैं। मोनिका डोगरा ने कुछ दृश्यों में जो इंप्रोवाइजेशन किया है वह गजब है। चार उदाहरण रख रहा हूँ, एक जब उसके शर्ट
पर वाईन गिरती है उस समय का उसका 'डिलेयड पॉज एक्सप्रेशन', दूसरा, मुन्ना जब पहली बार कपड़ा देने उसके फ्लैट पर गया है, तब वह अपने हाथ को जिस अंदाज में हिला कर
कहती है, 'अंदर आओ।' तीसरा, जब फोटो शूट के वक्त मुन्ना पूछता है कि मैं टी शर्ट उतार दूँ तब मोनिका का निगाह चुरा कर देख लेने का जो अंदाज है वैसा एक्सप्रेशन
इससे पहले कमल हासन में ही दिखा करता था और चौथा जब वह अपने टैरेस पर सोकर उठने के ठीक बाद अपनी माँ से अलसाई आवाज में बात कर रही है। पूरे फिल्म में प्रतीक
बब्बर की बॉडी लैंग्वेज (झपकती पलकें, शर्माने की अलग-अलग अदाएँ और संवाद अदायगी में स्वरों का आरोह-अवरोह) 'मि. परफेक्शनिस्ट' पर भारी है। इस पर तो काफी कुछ
लिखा जा सकता है लेकिन फिलहाल इतना ही कि एक दृश्य याद कीजिए जहाँ मुन्ना शॉय के साथ फिल्म देख रहा है, शॉय के हाथ के स्पर्श की चाह से उपजा भय, रोमांच और संकोच
सब उसके चेहरे पर जिस कदर सिमटा है, वह एक ही उदाहरण काफी जान पड़ता है। 'जाने तू या जाने ना' में अपनी छोटी भूमिका की छाप को प्रतीक बब्बर ने इस फिल्म में
धुंधलाने नहीं दिया है। सलीम इससे पहले 'पिपली लाइव' में भी एक छोटी सी भूमिका निभा चुके हैं। यास्मीन को सिर्फ आवाज और चेहरे के बदलते भावों के द्वारा खुद को
कन्वे करना था। और वह जितनी दफा स्क्रीन पर आती है उसकी झरती रंगत मिटती ताजगी को महसूस किया जा सकता है। आमिर के हाथों अरुण का किरदार फिसल गया है। कैरेक्टर के
हिसाब से देखें तो अरुण का किरदार कुछ ज्यादा ही चैलेंजिंग और दिलचस्प है, चैलेंजिंग अभिनय की दृष्टि से और दिलचस्प टेक्स्ट की दृष्टि से। अगर अरुण को विजुअल की
जगह स्क्रिपचुअल रुप में आप देखने की कोशिश करें तो वह सबसे पावरफुल किरदार है। मतलब सिर्फ इतना कि अगर इसे फिल्म के बजाय एक उपन्यास की शक्ल में पढ़ने की कोशिश
करें तब आपको अरुण के कैरेक्टर की ब्यूटी का अंदाजा लग सकता है। इधर हितेंद्र पटेल के हालिया उपन्यास 'हारिल' को पढ़ते हुए अरुण के किरदार का एक अक्स उभरा। अपने
उपन्यास में उन्होंने एक पर्सनॉलिटी को डिफाइन करने के क्रम में यह बात लिखी है कि 'कुछ लोग आदतन कुछ इस तरह के व्यक्तित्व में परिणत हो जाते हैं जो बाहर की
दुनिया से 'क्लोज्ड' हो जाता है। उसके पास एक आंतरिक दुनिया होती है, जिसका वह प्रक्षेपण बाहरी दुनिया पर करता है, 'रिलेट' करता है। उसके पास हर समय दूर रहने की
सुविधा होती है। वह जीवन में 'स्टार्ट' ही नहीं लेता, जीवन के 'पैरेलल' चलता है।' अरुण की इस बंद दुनिया में एक हल्का-सा विक्षोभ मोनिका पैदा करती है और वह खुद
को फिर से 'क्लोज' कर लेता है। उसके व्यक्तित्व की परतें खुलनीं आरंभ होती हैं यास्मीन के विडियो के संग। इंट्रोवर्ट अरुण के अंतर्मन में आ रहे परिवर्तनों को
सिर्फ चेहरे से बयाँ कर पाना रांगेय राघव की कहानी 'गूँगे' की याद दिलाता है जहाँ गूँगे के बोलने की जबर्दस्त कोशिश सिर्फ घों-घों की ध्वनियों तक सिमट कर रह
जाता है, लगभग वैसी ही स्थिति अरुण के किरदार को निभाने में आमिर की हो गई है। अरुण का किरदार इस अर्थ में भी त्रासद है कि जैसे ही वह जीवन में 'स्टार्ट' ले रहा
होता है वैसे ही फिर से यास्मीन की आत्महत्या के साथ उसमें एक 'पॉज' लग जाता है। इन आयामों को अगर आप एक उपन्यास के शिल्प में देखेंगे तब आप इस चरित्र की
खूबसूरती का अनुमान कर सकते हैं। अंतर्मुखी अरुण कोई ऐसा किरदार नहीं था जिसके गेस्चर और पोस्चर के जरिए उसे कन्वे किया जा सकता था। लगान, मंगल पांडेय, तारे
जमीन पर, गजनी, थ्री इडियट की तरह सिर्फ वेश-भूषा बदल लेने से ही अरुण पहचान लिया जाता ऐसी बात नहीं थी। अरुण के किरदार को अभिनीत नहीं करना था बल्कि जीना था।
आमिर एक्टिंग के नाम पर उन कुछ बाहरी लक्षणों तक ही सिमट कर रह गए जिसे उनकी चिर-परिचित मुद्राओं के तौर पर हम देखते आए हैं। मसलन, फैलती-सिकुड़ती पुतलियाँ, भवों
पर पड़नेवाला अतिरिक्त बल, सर खुजाने और लंबी साँसें छोड़ना वाला अंदाज आदि। यह लगभग वैसा ही सलूक है जैसा 'चमेली' में करीना कपूर ने किया था, उसने भी होंठ रँग
कर, पान चबा कर, चमकीली साड़ी और गाली वाली जुबान के कुछ बाहरी लक्षणों के द्वारा चमेली को साकार करना चाहा था। उसी के समानांतर 'चाँदनी बार' में तब्बू को देखने
से किसी किरदार को जीने और अभिनीत करने के अंतर को समझा जा सकता है। इस संदर्भ में पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि आमिर खान एक्टर नहीं स्टार हैं और इस लिहाज
से मोनिका डोगरा सब पर भारी हैं। बहरहाल आमिर इस नुकसान की भरपाई अपनी उपस्थिति मात्र से ही कर गए हैं ऐसा फिल्म की लागत और उसके बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को देखते
हुए कहा जा सकता है।
अब अगर बात नेपथ्य की करें तो फिल्म का संगीत और सिनेमेटोग्राफी वाला पहलू बचता है। फिल्म में कोई गाना नहीं है केवल बैकग्राउंड स्कोर है जिसके कंपोसर हैं,
अर्जेंटीनियाई मूल के गुस्ताव। इस साल हर फिल्म फेस्टिवल में जिस फिल्म 'दी ब्यूटीफुल' ने सफलता के झंडे गाड़े हैं उसका संगीत भी गुस्ताव ने दिया है लगभग हर
अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके इस संगीतकार का जादू रह-रह कर थोड़े अंतराल पर 'धोबी घाट' में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। उन संवादहीन दृश्यों
में खासकर जहाँ फिल्म की कहानी सुर-लहरियों पर तिरती आगे बढ़ती है। कहानी साउंडट्रैक में संचरण करती है। ऐसा कई एक जगहों पर हैं। पर्दे पर आमिर खान प्रोडक्शन के
साथ अजान सरीखा एक संगीत है जिसको बीच-बीच में पटरी पर दौड़ती ट्रेन की खट-खट-आहट तोड़ती है, मुन्ना और शॉय जब अंतरंगता के क्षणों में डूब रहे होते हैं। इसके
अलावा अकेलापन, उदासी, प्यार जैसी भावनाओं को भी गहराने की कोशिश सुनी जा सकती है। गुस्ताव के साथ ही फिल्म की सिनेमेटोग्राफी भी सराहनीय है। खास कर तुषार कांति
रे के वे पंद्रह-सोलह स्टिल्स, जिसमें शॉय डेली मार्केट को अपनी निगाहों में कैद कर रही है। पर इससे भी ज्यादा प्रभावी वह दृश्य है जिसमें मुन्ना शॉय के साथ
समंदर किनारे बैठ कर डूबते सूरज को देख रहा है और वह डूबता सूरज मुन्ना के पीछे समंदर के किनारे खड़ी किसी इमारत की उपरी मंजिलों पर लगे शीशे पर प्रतिबिंबित हो
रहा है। शुरू और आखिरी के चार-चार शाट्स की बात तो कर ही चुका हूँ। वैसे सिनेमेटोग्राफी को थोड़ा और सशक्त होना था क्योंकि एक ही साथ विडियो (यास्मीन), पेंटिंग
(अरुण), और फोटोग्राफी (शॉय) तीनों आर्ट फार्म की निगाह से मुंबई को कैद करने की बात थी।
फिल्म कमजोर लगी आमिर के कारण और एक दूसरी बुनियादी गलती है सलमान खान के फिल्मों के नामोल्लेख के संदर्भ में किरण को करना सिर्फ इतना था कि मुन्ना से शॉय की
दूसरी मुलाकात पर उन्हें 'युवराज' की जगह 'हैलो' देखने जाते हुए दिखलाना था और बाद में मुन्ना उसे 'युवराज' दिखाने का वादा कर रहा होता। ऐसा इसलिए कि 'हैलो' 10
अक्टूबर 2008 को रिलीज हुई थी और 'युवराज' 21 नवंबर 2008 को। इससे रियलिटी के टाईम वाले डायमेन्सन की संगति भी बैठ जाती। फिलहाल तो इस फिल्म को देखने के बाद जिन
बातों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ उनमें अनुषा रिजवी और किरण राव की दूसरी फिल्म, 'पिपली लाइव' की मलायिका शिनॉय और 'धोबी घाट' की मोनिका डोगरा की अगली भूमिकाओं का
इंतजार शामिल है।